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"मन की किरकिराहट"

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आधुनिक समय में हमारी ज़िंदगी इतनी सिमट चुकी है कि अब दस्तकें सुनाई नहीं देतीं, बस आहटें बची रहती हैं। हर दिन हम अपनी दुनिया को साफ़-सुथरा और सुव्यवस्थित रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ ऐसा होता है जो हमेशा रह जाता है—कमरे के कोनों में जमी धूल की तरह। यह धूल सिर्फ फर्श पर नहीं, बल्कि हमारी स्मृतियों में भी जमी रहती है। चाहे हम कितनी भी कोशिश कर लें, मन के किसी कोने में वह किरकिराहट बच ही जाती है। हमने भौतिक जीवन की हर असुविधा के लिए समाधान ढूंढ लिया। पैरों को धूल और कंकड़ से बचाने के लिए चप्पलें बना लीं। पर क्या हमने कभी सोचा कि मन की किरकिराहट को कैसे शांत किया जाए? मन के भीतर की स्मृतियों और अनुभवों के बचे हुए टुकड़ों से बचने का कोई उपाय अब तक नहीं खोजा गया। वे टुकड़े जो हमें चुभते हैं, बार-बार यादों के कोनों से निकलकर हमारी शांति को भंग कर देते हैं। जब भी कभी खिड़की के बाहर देखते हैं, वह आँखों की कोरों पर ठहरी ओस की बूँदें अब भी गिरती हैं। लेकिन अब वह मन उस पत्ते जैसा नहीं रहा जो इन बूँदों को अपने ऊपर उतर जाने देता था। वह पत्ता जो अपने भार को हल्का कर लेता था, अब वह सुख...