"मन की किरकिराहट"
आधुनिक समय में हमारी ज़िंदगी इतनी सिमट चुकी है कि अब दस्तकें सुनाई नहीं देतीं, बस आहटें बची रहती हैं। हर दिन हम अपनी दुनिया को साफ़-सुथरा और सुव्यवस्थित रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ ऐसा होता है जो हमेशा रह जाता है—कमरे के कोनों में जमी धूल की तरह। यह धूल सिर्फ फर्श पर नहीं, बल्कि हमारी स्मृतियों में भी जमी रहती है। चाहे हम कितनी भी कोशिश कर लें, मन के किसी कोने में वह किरकिराहट बच ही जाती है।
हमने भौतिक जीवन की हर असुविधा के लिए समाधान ढूंढ लिया। पैरों को धूल और कंकड़ से बचाने के लिए चप्पलें बना लीं। पर क्या हमने कभी सोचा कि मन की किरकिराहट को कैसे शांत किया जाए? मन के भीतर की स्मृतियों और अनुभवों के बचे हुए टुकड़ों से बचने का कोई उपाय अब तक नहीं खोजा गया। वे टुकड़े जो हमें चुभते हैं, बार-बार यादों के कोनों से निकलकर हमारी शांति को भंग कर देते हैं।
जब भी कभी खिड़की के बाहर देखते हैं, वह आँखों की कोरों पर ठहरी ओस की बूँदें अब भी गिरती हैं। लेकिन अब वह मन उस पत्ते जैसा नहीं रहा जो इन बूँदों को अपने ऊपर उतर जाने देता था। वह पत्ता जो अपने भार को हल्का कर लेता था, अब वह सुख-सुविधाओं और चीज़ों के ढेर में दब चुका है।
हमने अपनी हर फेंकी जाने वाली चीज़ को संभाल लिया है, हर टूटे हुए खिलौने से लेकर पुराने कागजों तक। लेकिन मन के उन कोनों में जमी धूल, उन अनकहे दर्द और अधूरी इच्छाओं को कोई नहीं समेट पाता। वे वहीं पड़ी रहती हैं—एक कोने में, एक किरकिराहट की तरह।
शायद जीवन का असली सवाल यही है—क्या हम कभी उस मन की धूल को झाड़ पाएंगे? क्या हम उन स्मृतियों को भुला पाएंगे जिनकी आहटें हर खामोशी को तोड़ती हैं? शायद नहीं। और शायद यही जीवन की खूबसूरती भी है। यह किरकिराहट ही हमें याद दिलाती है कि हम जीवित हैं, कि हम महसूस कर सकते हैं। यह हमें इंसान बने रहने का एहसास कराती है।
तो अगली बार जब मन में कोई किरकिराहट हो, तो उसे नजरअंदाज मत कीजिए। उसे महसूस कीजिए। क्योंकि यह मन की धूल भी आपकी अपनी कहानी का एक हिस्सा है—जिसे आप कभी पूरी तरह से नहीं मिटा सकते, लेकिन जिसे आप संजो सकते हैं।
~सौरभ
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें