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"गाँव की स्मृतियों में"

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चाहे किसी भी शहर में बस जाओ; वो शहर भी हमारे लिए अपना गाँव ही बन जाता है। आज इस तस्वीर को देख मन के किसी कोने में वह शाम फिर से सांस लेने लगी है—गाँव की वो उदास धूप में बुझती शाम, जब मंदिर के घंटों की आवाज़ मन में एक अजीब सा सुकून भर देती थी। वह पीपल का विशाल वृक्ष, जिसकी जड़ों में बचपन की हर क्रीड़ा समाई हुई थी, उसकी छाँव में बैठे घंटों बीत जाया करते थे। शहर के इस बगीचे में यह मंदिर और ये पेड़ देखकर हृदय में वो गहरी टीस उठी है—जैसे कोई भूली हुई स्मृति अचानक जीवन्त हो उठी हो। तब की शामें कितनी सरल थीं। जब दिन भर की कड़ी धूप और खेतों की सोंधी महक के बीच खेलते-खेलते जब थक जाते, तो चौपाल पर जाकर बैठते थे। हमारे पैरों में धूल होती थी, और आँखों में सपनों की चमक। मंदिर के घंट और आरती के स्वर गाँव को एक मधुर संगीत से भर देते थे। पीपल के नीचे रखे पत्थरों पर बैठकर हमने कितनी ही बार गाँव के भविष्य के सपने देखे थे—वो सपने जो पक्की सड़कों और ऊँची इमारतों में खो गए। यहाँ इस शहर के बगीचे में, जब हवा उन पत्तों को सरसराती है, तो लगता है जैसे गाँव का वही पीपल हमसे बात कर रहा हो। वह मंदिर की...