"खामोशी का शोर"
पहाड़ों की ऊँचाइयों पर बसा वह छोटा-सा गाँव, जहाँ सूरज की पहली किरण देवदार की शाखों को छूकर धरती पर गिरती थी। वहीं कहीं, उन्हीं वादियों में एक लड़की रहती थी— नित्या। अल्हड़, बेख़ौफ़, और शिव की अनन्य भक्त। उसकी आँखों में हिमालय की ठंडक थी, पर मन किसी जलते हुए दीपक की लौ सा था। वह शिक्षिका थी, पर उसके अपने ही जीवन के पाठ अनकहे रह गए थे। रात को जब पहाड़ों पर सन्नाटा घिर आता, तो वह अक्सर अपने कमरे की खिड़की पर बैठ जाया करती। उसकी निगाहें दूर किसी अदृश्य बिंदु को ताकतीं, और मन में एक अजीब-सी हलचल उठती। वह खुद से कहती— " मुझे अंधेरे से डर लगता है क्योंकि जब सब कुछ शांत होता है, तो मेरे मन में एक द्वंद उत्पन्न होता है।" न जाने कितनी रातें उसने यूँ ही जागकर बिता दी थीं, न जाने कितनी बार उसने अपने भीतर के तूफानों को शब्दों में ढालने की कोशिश की थी, पर फिर भी कागज़ कोरा ही रह जाता। " मैं लिखना चाहूँ, लिख नहीं पाती, कहना चाहूँ, तो कह नहीं पाती..." शब्द उसकी आत्मा में कैद होकर रह जाते। दिनभर वह अपने विद्यार्थियों को जीवन के पाठ पढ़ाती, उनकी हँसी में अपनी चुप्पी ...