"खामोशी का शोर"
पहाड़ों की ऊँचाइयों पर बसा वह छोटा-सा गाँव, जहाँ सूरज की पहली किरण देवदार की शाखों को छूकर धरती पर गिरती थी। वहीं कहीं, उन्हीं वादियों में एक लड़की रहती थी— नित्या। अल्हड़, बेख़ौफ़, और शिव की अनन्य भक्त। उसकी आँखों में हिमालय की ठंडक थी, पर मन किसी जलते हुए दीपक की लौ सा था। वह शिक्षिका थी, पर उसके अपने ही जीवन के पाठ अनकहे रह गए थे।
रात को जब पहाड़ों पर सन्नाटा घिर आता, तो वह अक्सर अपने कमरे की खिड़की पर बैठ जाया करती। उसकी निगाहें दूर किसी अदृश्य बिंदु को ताकतीं, और मन में एक अजीब-सी हलचल उठती। वह खुद से कहती— "मुझे अंधेरे से डर लगता है क्योंकि जब सब कुछ शांत होता है, तो मेरे मन में एक द्वंद उत्पन्न होता है।"
न जाने कितनी रातें उसने यूँ ही जागकर बिता दी थीं, न जाने कितनी बार उसने अपने भीतर के तूफानों को शब्दों में ढालने की कोशिश की थी, पर फिर भी कागज़ कोरा ही रह जाता। "मैं लिखना चाहूँ, लिख नहीं पाती, कहना चाहूँ, तो कह नहीं पाती..." शब्द उसकी आत्मा में कैद होकर रह जाते।
दिनभर वह अपने विद्यार्थियों को जीवन के पाठ पढ़ाती, उनकी हँसी में अपनी चुप्पी छुपा लेती। बच्चों की मासूमियत में वह अपना खोया हुआ बचपन तलाशती। पर जब स्कूल की घड़ी अंतिम घंटी बजाती, और वह अकेली रह जाती, तो एहसास होता कि समझदारी का बोझ उसे भीतर तक खोखला कर चुका है। वह सोचती— "समझदारी खुशियाँ छीन लेती है, इसीलिए हम पागल ही अच्छे..."
नित्या के जीवन में प्रेम भी आया था, पर प्रेम जब अधूरा रह जाए, तो उसकी चोट जीवनभर रिसती रहती है। उसने किसी को टूटकर चाहा था, पर पहाड़ों पर बर्फ जितनी जल्दी जमती है, उतनी ही जल्दी पिघल भी जाती है। वो व्यक्ति उसकी दुनिया था, पर दुनिया किसी एक के इंतज़ार में कब रुकी है? वह चला गया, बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने, और साथ ले गया उसकी आत्मा का एक हिस्सा।
उसने खुद को बहुत समझाया, बहुत समझने की कोशिश की कि जीवन और मृत्यु, अपनापन और अकेलापन, रात और दिन, अंधेरा और उजाला— ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पर दर्द को तर्क से समझाना असंभव होता है। हर रात उसके भीतर शिव से एक प्रश्न उठता— "क्या प्रेम का स्वभाव ही क्षणभंगुर होता है?"
वह काली रातों में दीप जलाती, खुद को शिव के चरणों में अर्पित कर देना चाहती, पर ईश्वर भी कुछ घावों का उपचार नहीं कर पाते। इसलिए उसने तय कर लिया कि वह अपनी वेदना को किसी और की नियति नहीं बनने देगी। वह कहती— "मैं कभी नहीं चाहूँगी, जो मुझ पर बीती है, वह किसी और पर गुजरे...
कई बार जीवन हमें उन राहों पर ले आता है, जहाँ हम किसी से कुछ कह नहीं सकते, खुद से भी नहीं। लेकिन नित्या अब जान चुकी थी कि हर अंधेरी रात के बाद एक नई सुबह होती है। वह जानती थी कि शिव सिर्फ संहार के देवता नहीं, वे पुनर्जन्म के प्रतीक भी हैं।
उसने अपनी वेदना को शक्ति बना लिया। अब वह उसी अंधेरे से डरने की जगह उसमें दीप जलाना सीख गई थी। क्योंकि अंततः, अंधेरा स्थायी नहीं होता। उजाले को आने में भले ही देर हो, पर वह आता ज़रूर है।
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