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"पास होने जैसा"

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कभी-कभी लोग ज़िंदगी में इस तरह दाख़िल होते हैं जैसे किसी पुराने गाने की धुन अचानक कहीं बज उठे — जानी-पहचानी, फिर भी नई। और फिर वक़्त, जगह, ज़िम्मेदारियाँ, सब कुछ बीच में आ जाता है। एक समय आता है जब मिलने की बात, एक साथ चाय पीने की योजना, बस चैट के इमोजी तक सीमित रह जाती है। लेकिन फिर भी, दोस्ती टिकी रहती है। किसी कोने में साँस लेती हुई — शांत, पर ज़िंदा। लंबी दूरी की दोस्ती आसान नहीं होती। बातें मिस होती हैं, हँसी अधूरी लगती है, और सबसे ज़्यादा — वो लम्हे जिनमें हम सिर्फ साथ बैठ कर चुप भी रह सकते थे, वो अब स्क्रीन पर मेसेज बन जाते हैं। कभी typing... तो कभी seen... लेकिन फिर भी, जो सच्चा होता है, वो टिका रहता है। इस दोस्ती में समय ज़्यादा लगता है, समझ ज़्यादा चाहिए होती है। कभी-कभी दूसरे की ज़िंदगी इतनी व्यस्त हो जाती है कि जवाब आने में दिन लग जाते हैं। और फिर भी, जब एक "कैसे हो?" आता है, तो उस एक लाइन में महीनों की सारी दूरी भर जाती है। लंबी दूरी की दोस्ती में अक्सर कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती — बस अधूरी कहानियाँ होती हैं, अधूरी मुलाक़ातें। लेकिन इसका एक अलग ही सौंदर्...