"The Frame Of Perception"
फ्रेम के भीतर सबकुछ ठहरा हुआ लगता था, फिर भी उसमें हर पल कुछ बदल रहा था। कभी ये इमारतें दमनकारी दीवारों जैसी लगतीं, जो आकाश और सपनों के बीच एक बाधा थीं। उनकी खिड़कियों से झाँकता अंधेरा खालीपन की कहानी सुनाता था। रेलिंग के उस पार का आकाश, कितना ही सुंदर क्यों न हो, हमेशा दूर और पहुंच से परे लगता था। पर क्या वास्तव में यह सब वैसा ही था, जैसा दिखता था?
रोशनी बदलती रही, और उसके साथ बदलने लगा दृश्य। जो इमारतें पहले ठोस दीवारों जैसी थीं, अब वे कहानियों का संग्रहालय बन गईं। हर खिड़की के पीछे कुछ न कुछ घट रहा था। किसी घर में बच्चे हँस रहे थे, किसी में कोई अपने अकेलेपन से जूझ रहा था। कहीं सपने बुने जा रहे थे, तो कहीं दिल टूट रहे थे। ये इमारतें अब ठहराव की नहीं, बल्कि जीवन की गतिशीलता की प्रतीक बन गईं।
आकाश भी बदल गया। उसकी अनंतता अब डरावनी नहीं, बल्कि प्रेरक लगने लगी। बादल, जो पहले बेमकसद बहते लगते थे, अब स्वतंत्रता के प्रतीक थे। उनका कोई तय आकार नहीं था, कोई बंधन नहीं था। वे बस बहते थे, जैसे कह रहे हों कि जीवन का उद्देश्य सिर्फ बहना है, गंतव्य में नहीं, यात्रा में है।
और वह पक्षी—जो कभी छोटा और अकेला लगता था—अब साहस और विश्वास का प्रतीक बन गया। वह ऊँचाइयों से नहीं डरता था, हवा की अनिश्चितता से नहीं भागता था। वह उड़ रहा था, अपने पंखों पर विश्वास करते हुए।
फ्रेम के भीतर का दृश्य वही था, पर अर्थ बदल गया था। यह बदलाव बाहरी नहीं था; यह दृष्टिकोण का था। रेलिंग, जो पहले कैद की प्रतीक लगती थी, अब एक पुल की तरह दिख रही थी, एक ऐसा स्थान जहाँ से कुछ नया शुरू किया जा सकता है। इमारतें आकाश को रोक नहीं रहीं थीं; वे रास्ता दिखा रहीं थीं।
दृश्य अब केवल बाहरी दुनिया का प्रतिबिंब नहीं था। यह भीतर की दुनिया का आईना बन गया था। जो सीमाएँ दिखाई देती थीं, वे असल में बाहर नहीं थीं; वे भीतर थीं।
सूरज ढल रहा था। उसका सुनहरा प्रकाश हर चीज़ को छूकर एक नयी चमक दे रहा था। यह ढलता हुआ सूरज एक वादा था—कि कल कुछ नया होगा। बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। अब यह दुनिया एक बंधन नहीं, बल्कि अनंत संभावनाओं की फ्रेम बन चुकी थी।
~सौरभ
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