"महाकुंभ: आस्था के मेले से आत्मा के सफ़र तक"
चारों ओर अंधेरा था, लेकिन तंबुओं से छनकर आती रोशनी अब भी टिमटिमा रही थी। हवा में धूप, चंदन और कहीं-कहीं जलते उपलों की महक घुली थी। कुछ देर पहले तक जहाँ मंत्रों का जाप था, वहाँ अब हल्की खामोशी थी। साधु-संत जो दिनभर प्रवचन में लीन रहते थे, अब धीरे-धीरे अपने रास्ते पकड़ रहे थे। श्रद्धालु जो आस्था में डूबकर हर सुबह गंगा में उतरते थे, अब आखिरी बार जल छूकर लौट रहे थे।
महाकुंभ खत्म हो रहा था, पर क्या सच में?
कुछ दिन पहले तक यही ज़मीन लोगों की अनगिनत कहानियों की गवाह थी। कोई यहाँ अपने पाप धोने आया था, तो कोई पुण्य कमाने। कोई अपनी बिछड़ी आस्था को फिर से खोजने, तो कोई जीवन-मरण के चक्र को समझने। एक अजीब सी बेचैनी थी—लोग यहाँ आए थे कुछ पाने, कुछ छोड़ने, कुछ महसूस करने। अब सब वापस जा रहे थे, शायद बदले हुए, शायद वैसे ही।
हर कदम जो इस धरती पर पड़ा, उसने एक निशान छोड़ा था। रेत में धंसे वो अनगिनत पाँव, जो संगम की ओर भागे थे, अब पीछे छूटे हुए से लग रहे थे। गंगा बह रही थी, वैसी ही जैसी सदियों से बहती आई है। वो जानती थी कि ये मेला अस्थायी था, जैसे जीवन। लोग आएंगे, आस्था लेंगे, अपने कर्म छोड़ेंगे और चले जाएंगे। पर गंगा रुकेगी नहीं, वो बहती रहेगी, सब समेटती, सब सँवारती।
शाम के अंधेरे में दूर जलता एक दीया दिखा—शायद किसी ने जाते-जाते प्रार्थना के लिए रखा था। उसे देखकर महसूस हुआ, महाकुंभ खत्म नहीं होता। वो हर उस इंसान के भीतर ज़िंदा रहता है, जिसने यहाँ कुछ महसूस किया। आस्था सिर्फ पानी में बहाई जाने वाली चीज़ नहीं, वो एक लहर है, जो भीतर उठती है और जीवन भर हमारे साथ बहती रहती है।
लोग चले गए, तंबू हट रहे थे, रोशनी मद्धम हो रही थी। लेकिन वो अनुभव, वो ऊर्जा, वो स्पर्श—जो गंगा की लहरों ने दिया था—वो शायद कभी खत्म नहीं होगा।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें